Tuesday, March 4, 2008

भावार्थ: रावण कृत शिव ताण्डव स्तोत्र

सघन जटामंडल रूप वन से प्रवाहित होकर श्री गंगाजी की धाराएँ जिन शिवजी के पवित्र कंठ प्रदेश को प्रक्षालित (धोती) करती हैं, और जिनके गले में लंबे-लंबे बड़े-बड़े सर्पों की मालाएँ लटक रही हैं तथा जो शिवजी डमरू को डम-डम बजाकर प्रचंड तांडव नृत्य करते हैं, वे शिवजी हमारा कल्याण करें।

अति अम्भीर कटाहरूप जटाओं में अतिवेग से विलासपूर्वक भ्रमण करती हुई देवनदी गंगाजी की चंचल लहरें जिन शिवजी के शीश पर लहरा रही हैं तथा जिनके मस्तक में अग्नि की प्रचंड ज्वालाएँ धधक कर प्रज्वलित हो रही हैं, ऐसे बाल चंद्रमा से विभूषित मस्तक वाले शिवजी में मेरा अनुराग (प्रेम) प्रतिक्षण बढ़ता रहे।

पर्वतराजसुता के विलासमय रमणीय कटाक्षों से परम आनंदित चित्त वाले (माहेश्वर) तथा जिनकी कृपादृष्टि से भक्तों की बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं, ऐसे (दिशा ही हैं वस्त्र जिसके) दिगम्बर शिवजी की आराधना में मेरा चित्त कब आनंदित होगा।

जटाओं में लिपटे सर्प के फण के मणियों के प्रकाशमान पीले प्रभा-समूह रूप केसर कांति से दिशा बंधुओं के मुखमंडल को चमकाने वाले, मतवाले, गजासुर के चर्मरूप उपरने से विभूषित, प्राणियों की रक्षा करने वाले शिवजी में मेरा मन विनोद को प्राप्त हो।

इंद्रादि समस्त देवताओं के सिर से सुसज्जित पुष्पों की धूलिराशि से धूसरित पादपृष्ठ वाले सर्पराजों की मालाओं से विभूषित जटा वाले प्रभु हमें चिरकाल के लिए सम्पदा दें।

इंद्रादि देवताओं का गर्व नाश करते हुए जिन शिवजी ने अपने विशाल मस्तक की अग्नि ज्वाला से कामदेव को भस्म कर दिया, वे अमृत किरणों वाले चंद्रमा की कांति तथा गंगाजी से सुशोभित जटा वाले, तेज रूप नर मुंडधारी शिवजीहमको अक्षय सम्पत्ति दें।

जलती हुई अपने मस्तक की भयंकर ज्वाला से प्रचंड कामदेव को भस्म करने वाले तथा पर्वत राजसुता के स्तन के अग्रभाग पर विविध भांति की चित्रकारी करने में अति चतुर त्रिलोचन में मेरी प्रीति अटल हो।

नवीन मेघों की घटाओं से परिपूर्ण अमावस्याओं की रात्रि के घने अंधकार की तरह अति गूढ़ कंठ वाले, देव नदी गंगा को धारण करने वाले, जगचर्म से सुशोभित, बालचंद्र की कलाओं के बोझ से विनम, जगत के बोझ को धारण करने वाले शिवजी हमको सब प्रकार की सम्पत्ति दें।

नवीन मेघों की घटाओं से परिपूर्ण अमावस्याओं की रात्रि के घने अंधकार की तरह अति गूढ़ कंठ वाले, देव नदी गंगा को धारण करने वाले, जगचर्म से सुशोभित, बालचंद्र की कलाओं के बोझ से विनम, जगत के बोझ को धारण करने वाले शिवजी हमको सब प्रकार की सम्पत्ति दें।

कल्याणमय, नाश न होने वाली समस्त कलाओं की कलियों से बहते हुए रस की मधुरता का आस्वादन करने में भ्रमररूप, कामदेव को भस्म करने वाले, त्रिपुरासुर, विनाशक, संसार दुःखहारी, दक्षयज्ञविध्वंसक, गजासुर तथा अंधकासुर को मारनेवाले और यमराज के भी यमराज श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ।

अत्यंत शीघ्र वेगपूर्वक भ्रमण करते हुए सर्पों के फुफकार छोड़ने से क्रमशः ललाट में बढ़ी हुई प्रचंड अग्नि वाले मृदंग की धिम-धिम मंगलकारी उधा ध्वनि के क्रमारोह से चंड तांडव नृत्य में लीन होने वाले शिवजी सब भाँति से सुशोभित हो रहे हैं।

कड़े पत्थर और कोमल विचित्र शय्या में सर्प और मोतियों की मालाओं में मिट्टी के टुकड़ों और बहुमूल्य रत्नों में, शत्रु और मित्र में, तिनके और कमललोचननियों में, प्रजा और महाराजाधिकराजाओं के समान दृष्टि रखते हुए कब मैं शिवजी का भजन करूँगा।

कब मैं श्री गंगाजी के कछारकुंज में निवास करता हुआ, निष्कपटी होकर सिर पर अंजलि धारण किए हुए चंचल नेत्रों वाली ललनाओं में परम सुंदरी पार्वतीजी के मस्तक में अंकित शिव मंत्र उच्चारण करते हुए परम सुख को प्राप्त करूँगा।

देवांगनाओं के सिर में गूँथे पुष्पों की मालाओं के झड़ते हुए सुगंधमय पराग से मनोहर, परम शोभा के धाम महादेवजी के अंगों की सुंदरताएँ परमानंदयुक्त हमारेमन की प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें।

प्रचंड बड़वानल की भाँति पापों को भस्म करने में स्त्री स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियों तथा चंचल नेत्रों वाली देवकन्याओं से शिव विवाह समय में गान की गई मंगलध्वनि सब मंत्रों में परमश्रेष्ठ शिव मंत्र से पूरित, सांसारिक दुःखों को नष्ट कर विजय पाएँ।

इस परम उत्तम शिवतांडव श्लोक को नित्य प्रति मुक्तकंठ सेपढ़ने से या श्रवण करने से संतति वगैरह से पूर्ण हरि और गुरु मेंभक्ति बनी रहती है। जिसकी दूसरी गति नहीं होती शिव की ही शरण में रहता है।

शिव पूजा के अंत में इस रावणकृत शिव तांडव स्तोत्र का प्रदोष समय में गान करने से या पढ़ने से लक्ष्मी स्थिर रहती है। रथ गज-घोड़े से सर्वदा युक्त रहता है।

इति शुभम्

14 comments:

Asha Joglekar said...

बहुत अच्छा लगा । अगर मूल स्तोत्र भी देते तो और भी अच्छा लगता ।

Anonymous said...

jo mantra rawan ne kailash parvat ko lift karte time mahadev ko sunayee thi wo mantra jan na chahta hoon

Vipin said...

aapke is lekh ko padkar ham dhanya ho gaye aur aapke charno me bahut bahut pranam.
Vipin Singh

Vipin said...

DURGA JI KE PATH " BAAN SHIRAN KI SINGH HERAN KI DHYAN DHARE PRABHU KO JAPTI HO MOHI PUKARAT DER BHAI JAGDAMB VILAMB KAHA KARTI HO" KO PURA HAME MAIL KAREN TO MAHAN KRIPA HOGI AAPKE CHARNO ME VINAMRA PRARTHNA HAI...
VIPIN SINGH
omvipins@gmail.com

sunny said...

बहुत अच्छा लगा ,hindi mein shiv tandav Stotram ka अर्थ main bhaut dino se khoj raha tha par durbhagy se ye adhiktar english translation he hai jo ki अर्थ se dur hai....ek baar phir dhanywaad

Ajeet said...

DURGA JI KE PATH " BAAN SHIRAN KI SINGH HERAN KI DHYAN DHARE PRABHU KO JAPTI HO MOHI PUKARAT DER BHAI JAGDAMB VILAMB KAHA KARTI HO...

those who need the complete path can mail me at ajeetkrd@gmail.com

Unknown said...

can someone please post the full path of devi... mohi pukarat der bhai

Ajeet said...

Link to "moh pukarat deer bhai" devi vandana https://docs.google.com/file/d/0B7NpW_SBIZ9DQ2F3bGxnd1Izc2M/edit?usp=sharing

last line of 7th paragraph is
"Moh pukarat ........"

and the 1st line of 8th paragraph is
" sadhu samadhi lagavat hai, tinke taan ko tum turant tarte ho "
"jo jan dhayan dhare tumko tinke prabhuta chit de karte ho"...


if still facing problem then mail me on ajeetkrd@gmail.com

Unknown said...

its still not very clear

Ajeet said...

Hi,

please find the Durga ji ka paathh in hindi


https://drive.google.com/file/d/0B7NpW_SBIZ9Db21GdEFJakNQRUE/edit?usp=sharing

Jai Mata Di.

Ajeet said...


Hi,

please find the Durga ji ka paathh in hindi

https://drive.google.com/file/d/0B7NpW_SBIZ9DQlRTRkJtVDc5V00/edit?usp=sharing


Jai Mata Di.

Ajeet said...

Hi,

please find the Durga ji ka paathh in hindi


https://drive.google.com/file/d/0B7NpW_SBIZ9DSFVlV0puTTR1MmM/edit?usp=sharing

Jai Mata Di

Unknown said...

hi, thanks a ton , its really amazin .

Unknown said...

11, 2011
दैत्य संघारन वेद उचारन दुष्टन को तुम्ही खलती हो,
खड्ग त्रिशूल लिये धनुबान औ सिंह चढ़े रण में लड़ती हो,
दास के साथ सहाय सदा सो दया करि अनी फते करती हो,
मोहि पुकारत देर भई जगदम्ब बिलम्ब कहाँ करती हो,

आदि की ज्योति गणेश की मातु क्लेश सदा जन के हरती हो,
की कहूँ दैत्यन युद्ध भयो तहं शोणित खप्पर लै भरती हो,
की कहूँ देवन याद कियो तहं धाय त्रिशूल सदा धरती हो,
मोहि पुकारत देर भई जगदम्ब बिलम्ब कहाँ करती हो,

सेवक से अपराध परयो कछु अपने चित्त में ना धरती हो,
दास के काज सवारन को निज जन जानि दया की मया करती हो,
शत्रु के प्राण संघारन को जग तारन को तुम सिन्धु सती हो,
मोहि पुकारत देर भई जगदम्ब बिलम्ब कहाँ करती हो,

मारि दियो महिषासुर को हरि केहरि को तुमही पलती हो,
मधु कैटभ दैत्य विध्वंस कियो नर देवन को तुम्हीं तरती हो,
दुष्टन मारि आनंद कियो निज दासन के दुःख को हरती हो,
मोहि पुकारत देर भई जगदम्ब बिलम्ब कहाँ करती हो,

साधु समाधि लगावत है तिन तिन का तुम्हीं तरती हो,
जो जन ध्यान धरै तुम्हरो तिनको प्रभुता दै सकती हो,
तेरो प्रताप तिहूँ पुर में तुलसी जन की मनसा भरती हो,
मोहि पुकारत देर भई जगदम्ब बिलम्ब कहाँ करती हो,

देव तुम्हारी करै विनती उनका तुम काज तुरत करती हो,
ब्रम्हा विष्णु महेश कि हो रथ हाँकि सदा जग में फिरती हो,
चंडहि मुंडहि जाय बधेव तब जायकै शत्रु निपात गती हो,
मोहि पुकारत देर भई जगदम्ब बिलम्ब कहाँ करती हो