Monday, March 3, 2008
रावण
अभिमान देखा, ज्ञान किसी ने ना देखा!
रावण का अप्रचारित चरित्र शरद पूर्णिमा के चंद्रमा के समान है!
महर्षि वाल्मीकि ने रावण को महात्मा कहा है। सुबह के समय लंका में पूजा-अर्चना, शंख और वेद ध्वनियों से गुंजायमान वातावरण का रामायण में अलौकिक चित्रण है। रावण अतुलित ज्ञानी तथा बहु-विद्याओं का मर्मज्ञ था। एक कुशल राजनीतिज्ञ, सेनापति और वास्तुकला का मर्मज्ञ राष्ट्रनायक था।
अशोक वाटिका जैसा विराट बाग तथा नदियों पर बनवाए गए पुल प्रजा के प्रति उसकी कर्तव्यनिष्ठा के प्रमाण हैं। स्वयं हनुमानजी उसके धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र संबंधी ज्ञान का लोहा मानते थे। महान शिवभक्त होने के साथ-साथ उसने घोर तपस्या के द्वारा ब्रह्मा से भीवर प्राप्त किए थे। आकाशगामिनी विद्या तथा रूप परिवर्तन विद्या के अलावा पचपन विद्याओं के लिए रावण ने पृथक से तपस्याएँ की थीं।
यत्र-तत्र फैली वैदिक ऋचाओं का कुशल संपादक रावण अंक-प्रकाश, इंद्रजाल, कुमार तंत्र, प्राकृत कामधेनु, प्राकृत लंकेश्वर, ऋग्वेद-भाष्य, रावणीयम (संगीत), नाड़ी-परीक्षा, अर्कप्रकाश, उड्डीश तंत्र, कामचाण्डाली, रावण भेंट आदि पुस्तकों का रचनाकार भी था। रावण ने शिव-तांडव स्तोत्र तथा अनेक शिव स्तोत्रों की रचना की। यह अद्भुत है कि जिस 'दुराचारी' रावण को हम हर वर्ष जलाते हैं, उसी रावण ने लंका के ख्यात आयुर्वेदाचार्य सुषेण द्वारा अनुमति माँगे जाने पर घायल लक्ष्मण की चिकित्सा करने की अनुमति सहर्ष प्रदान की थी।
संयमी रावण ने माता सीता को अंतःपुर में नहीं रखा, राम का वनवास-प्रण खंडित न हो, अतः अशोक वन में सीता को स्त्री-रक्षकों की पहरेदारी में रखा। सीता को धमकाने वाले कथित कामी रावण ने सीताजी द्वारा उपहास किए जाने के बावजूद, बलप्रयोग कदापि नहीं किया, यह उसकी सहनशीलता और संयमशीलता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। सीताहरण के पूर्व, शूर्पणखा के नाक-कान काटे जाने के प्रतिशोधरूप नीतिपालक रावण ने वनवासी राम पर आक्रमण नहीं किया, उन्हें अपनी सेना बनाने की, सहायक ढ़ूँढने की पूरी कालावधि दी। रावण से रक्षा हेतु राम को अमोघआदित्य स्तोत्र का मंत्र देने वाले ऋषि अगस्त्य का यह कथन हमारे नेत्र खोल देने वाला होगा- 'हे राम! मैं अपनी संपूर्ण तपस्या की साक्षी देकर कहता हूँ कि जैसे कोई पुत्र अपनी बूढ़ी माता की देख-रेख करता है वैसे ही रावण ने सीता का पालन किया है।' (अध्यात्म- रामायण)
उसने अपनी राज-सत्ता का विस्तार करते हुए अंगद्वीप, मलयद्वीप, वराहद्वीप, शंखद्वीप, कुशद्वीप, यवद्वीप और आंध्रालय को जीतकर अपने अधीन कर लिया था।
इसके पहले वह सुंबा और बालीद्वीप को जीत चुका था। सुंबा में मयदानव से उसका परिचय हुआ। मयदानव से उसे पता चला कि देवों ने उसका नगर उरपुर और पत्नी हेमा को छीन लिया है। मयदानव ने उसके पराक्रम से प्रभावित होकर अपनी परम रूपवान पाल्य पुत्री मंदोदरी से विवाह कर दिया। मंदोदरी की सुंदरता का वर्णन श्रीरामचरित मानस के बालकांड में संत तुलसीदासजी ने कुछ इस तरह किया है- 'मय तनुजा मंदोदरी नामा। परम सुंदरी नारि ललामा' अर्थात मयदानव की मंदोदरी नामक कन्या परम सुंदर और स्त्रियों में शिरोमणि थी।
इसके बाद रावण ने लंका को अपना लक्ष्य बनाया। दरअसल माली, सुमाली और माल्यवान नामक तीन दैत्यों द्वारा त्रिकुट सुबेल पर्वत पर बसाई लंकापुरी को देवों और यक्षों ने जीतकर कुबेर को लंकापति बना दिया था। रावण की माता कैकसी सुमाली की पुत्री थी। अपने नाना के उकसाने पर रावण ने अपनी सौतेली माता इलविल्ला के पुत्र कुबेर से युद्ध की ठानी परंतु पिता ने लंका रावण को दिला दी तथा कुबेर को कैलाश पर्वत के आसपास के त्रिविष्टप क्षेत्र में रहने के लिए कह दिया। इसी तारतम्य में रावण ने कुबेर का पुष्पक विमान भी छीन लिया।
भगवान श्रीराम ने एक-एक कर उसके दसों विकारों का विनाश किया होगा। क्योंकि भक्तवत्सल हरि अपने भक्तों की मुक्ति के लिए समस्त लीलाएँ करते हैं। इस संबंध में नारद-अहंकार की कथा का जिक्र प्रासंगिक होगा। नारद की तपस्या से विचलित, राज्य छिने जाने के मिथ्या भयसे इंद्र कामदेव को तपस्या भंग करने भेजता है। असफल कामदेव मुनि के चरणों में स्तुति करता है।
नारद को काम जीतने का अहंकार हो जाता है। शरणागत वत्सल हरि नारद का अहंकार मिटाने के लिए एक रूपसी कन्या और सुंदर नगरी की रचना करते हैं, कन्या पर मोहित कामग्रस्त नारद अपने आराध्य से हरिरूप माँगते हैं, हरि उन्हें वानरमुख (हरि) देते हैं और स्वयं कन्या से वरे जाने की माया करते हैं। क्रुद्ध नारद शाप देते हैं और भगवान को नारी विरही के रूप में राम बनकर मनुज अवतार लेना पड़ता है।
जब नारद जैसे ब्रह्मर्षि और सदा नारायण-रस में विचरण करने वाले भक्त शिरोमणि का अहंकार स्वयं प्रभु हरि समझाइश से दूर करने में स्वयं को असमर्थ पाकर लीला करने को विवश हो जाते हैं तो अपने गण जय-विजय या शिव के गण या अभिशप्त प्रतापभानु, जो मद मोहादि विकारों सेयुक्त होकर रावण रूप में जन्मा है, के इन सशक्त विकारों को एक-एक कर लीला करके ही निकालेंगे अन्यथा नहीं। भगवान ने रामरूप में अपने भक्त रावण के एक-एक विकार को एक-एक सिर मानकर (सिर को अहंकार का प्रतीक माना गया है) कठिनता से नष्ट किया, तभी तो पापमुक्त रावण बैकुंठधाम गया।
वाल्मीकिजी ने लिखा है- मृत्यु के समय ज्ञानी रावण राम से व्यंग्य पूर्वक कहता है- 'तुम तो मेरे जीते-जी लंका में पैर नहीं रख पाए। मैं तुम्हारे जीते-जी तुम्हारे सामने तुम्हारे धाम जा रहा हूँ।' यह निर्विवाद सत्य है कि वास्तविक जीवन में हम जीवन भर संतों की प्रेरणा से यास्वविवेक से काम, क्रोध, लोभ जैसे विकारों से मुक्त होने के लिए आजीवन या दीर्घकाल तक प्रयास करते हैं, परंतु अमूमन असफल रहते हैं। रावण भी इसका अपवाद नहीं था। रावण को यह ज्ञात था। शूर्पणखा द्वारा खर-दूषण वध का समाचार पाकर वह स्वयं से कहता है-
सुर रंजन भंजन महीभारा। जौं भगवंत लीन्ह अवतारा।
तौ मैं जाइ बैरू हठि करऊँ। प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ॥
अर्थात देवताओं को आनंद देने वाले और पृथ्वी का भार हरण करने वाले भगवान ने ही यदि अवतार लिया है तो मैं जाकर उनसे हठपूर्वक वैर करूँगा और प्रभु के बाणाघात से प्राण छोड़कर भवसागर से तर जाऊँगा।
महान रामभक्त रावण ने प्रभु के प्रण को निर्बाध रूप से पूरा करने के लिए हठपूर्वक शत्रुता को अंगीकार किया। तोरवे रामायण के अनुसार युद्ध में प्रस्थान के पूर्व रावण अपनी सारी संपत्ति दरिद्रों में बाँट जाता है, कैदियों को मुक्त कर देता है और विभीषण को राज दिएजाने की वसीयत कर देता है। रावण के दाह-संस्कार के लिए विभीषण को तैयार करते हुए प्रभु विभीषण से कहते हैं-'मृत्यु के बाद वैर का अंत हो जाता है अतः तुम शीघ्र ही अपने भाई का दाह संस्कार कर डालो।' मना किए जाने पर राम कहते हैं- 'रावण भले ही अधर्मी रहाहो परंतु वह युद्धभूमि में सदा ही तेजस्वी, बलवान और शूरवीर था।'
भगवान राम ने अनेक बार उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। श्रीराम द्वारा अपने आराध्यदेव शिव की लंका प्रयाण के समय सेतुबंध रामेश्वर में प्राण-प्रतिष्ठा रावण जैसे अद्वितीय वेदमर्मज्ञ पंडित से करवाई जाना, रावण के रामभक्त और महान शिवभक्त होने का अकाट्य और प्रकट प्रमाण है।
यह शायद बहुत कम लोगों को पता है कि जैन मतानुसार महान शिवभक्त एवं श्रीराम द्वारा पापमुक्त महापंडित रावण भावी चौबीस तीर्थंकर (आवती चौबीसी) की सूची में भगवान महावीर की तरह चौबीसवें तीर्थंकर के रूप में मान्य है और कुछ प्रसिद्ध प्राचीन तीर्थस्थलों पर उनकी मूर्तियाँ भी प्रतिष्ठित हैं।
वास्तव में राम परमात्मा हैं, विराट सकारात्मक दिव्य ऊर्जा है जबकि काम, क्रोधादि मायाजनित मानवीय दोष रावण रूप हैं। और बिना राम के माया-रावण नष्ट नहीं होता है। यह रावण (मायाजनित दोष) हम सभी में है। कबीर ने कहा है- कबीर ने राम की शरण ग्रहण की है। हे माया!तू जैसे ही अपना फंदा उस पर डालती है, वैसे ही वह (राम) उसे छिन्न-भिन्न कर डालता है।
'दास कबीर राम की सरनैं, ज्यूं लागी त्यूं तोरी'
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2 comments:
ravan is a yug, its a definition of brahmin, some so called great writers made ravan a 'durjan' but its not like that he was equivelent to n not equivelent he was just GOD only bcos of him we all know ram,how can we all deny that he even had don all things by his will n wish only. so called ram is puppet only.
Sindu ke samrat ko mai dravain dhipatee kahanaa pasand karta hau
Kavi Hardayal Kushwaha New Delhi
9891485947/9911197344
My Book Sindu Ka Desh
http://www.facebook.com/ext/share.php?sid=63389942800&h=deh9S&u=RaIja
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