बेनाम सा ये दर्द , ठहर क्यों नही जाता
जो बीत गया है , वह गुज़र क्यों नही जाता
सब कुछ तो है , क्या ढूँढती रहती है निगाहें
क्या बात है , मैं वक्त पे घर क्यों नही जाता
वह इक ही चेहरा तो नही सारे जहाँ में
जो दूर है वह दिल से उतर क्यों नही जाता
मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा
जाते हैं जिधर सब में उधर क्यों नही जाता
वह नाम जो न जाने कब से , ना चेहरा ना बदन है
वह खवाब अगर है तो बिखर क्यो नही जाता
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