Thursday, April 22, 2010

देवी स्तुति


जगजननी जय! जय! माँ! जगजननी जय! जय!
भयहारिणी, भवतारिणी, भवभामिनि जय जय। (जगजननी जय ! जय !!)

तू ही सत्-चित्-सुखमय, शुद्ध ब्रह्मरूपा।
सत्य सनातन, सुन्दर, पर-शिव सुर-भूपा॥१॥ (जगजननी जय ! जय !!)

आदि अनादि, अनामय, अविचल, अविनाशी।
अमल, अनन्त, अगोचर, अज आनन्दराशी॥२॥ (जगजननी जय ! जय !!)

अविकारी, अघहारी, अकल कलाधारी।
कर्ता विधि, भर्ता हरि, हर संहारकारी॥३॥ (जगजननी जय ! जय !!)

तू विधिवधू, रमा, तू उमा महामाया।
मूल प्रकृति, विद्या तू, तू जननी जाया॥४॥ (जगजननी जय ! जय !!)

राम, कृष्ण तू, सीता, ब्रजरानी राधा।
तू वाँछाकल्पद्रुम, हारिणि सब बाधा॥५॥ (जगजननी जय ! जय !!)

दश विद्या, नव दुर्गा, नाना शस्त्रकरा।
अष्टमातृका, योगिनि, नव-नव रूप धरा॥६॥ (जगजननी जय ! जय !!)

तू परधामनिवासिनि, महाविलासिनि तू।
तू ही श्मशानविहारिणि, ताण्डवलासिनि तू॥७॥ (जगजननी जय ! जय !!)

सुर-मुनि मोहिनि सौम्या, तू शोभाधारा।
विवसन विकट सरुपा, प्रलयमयी, धारा॥८॥ (जगजननी जय ! जय !!)

तू ही स्नेहसुधामयी, तू अति गरलमना।
रत्नविभूषित तू ही, तू ही अस्थि तना॥९॥ (जगजननी जय ! जय !!)

मूलाधार निवासिनि, इह-पर सिद्धिप्रदे।
कालातीता काली, कमला तू वरदे॥१०॥ (जगजननी जय ! जय !!)

शक्ति शक्तिधर तू ही, नित्य अभेदमयी।
भेद प्रदर्शिनि वाणी विमले! वेदत्रयी॥११॥ (जगजननी जय ! जय !!)

हम अति दीन दु:खी माँ! विपत जाल घेरे।
हैं कपूत अति कपटी, पर बालक तेरे॥१२॥ (जगजननी जय ! जय !!)

निज स्वभाववश जननी! दयादृष्टि कीजै।
करुणा कर करुणामयी! चरण शरण दीजै॥१३॥ (जगजननी जय ! जय !!)

|| ॐ देवी शरणम ||

Thursday, October 15, 2009

शुभ दीपावली

महाधुनि हनुमान, कपिराज सुग्रीव तथा लंकाधिपति विभीषण के साथ अयोध्या के महापराक्रमी सम्राट भगवान् श्री रामचंद्र अपने अनुज लक्ष्मण एवं बामांगी सीता को लिए १४ वर्षों के महा वनवास तथा असुरेश्वर रावण का वध कर आसुरी शक्तियों का समन करने के पश्चात् अयोध्या की राजधानी आये! उनके आगमन के इस शुभ अवसर पर संपूर्ण अयोध्या को घी के दीयों से सजाया गया! आज भी हम इसी उत्सव को दीपावली के रूप में प्रति वर्ष भगवन के श्री चरणों में अपने उलास को व्यक्त करने हेतु बड़े धूम-धाम से बनाते हैं!

सभी अनुचरों को आचार्य श्री का स्नेहाशीष एवं दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं!

Tuesday, April 28, 2009

हनुमान चालीसा श्रवनामृत !

हनुमान मन के प्रतिक हैं हनुमान सर्वसमर्थ अतुलित शक्तिशाली परम ज्ञानी हैं कलियुग के एकमात्र सक्रीय देवता जिनके उपासना से मन सबल होता है और कार्यों में सफलता सुनिश्चित होती है

हनुमान चालीसा

Tuesday, April 29, 2008

पहले पन्ने का हमेसा ज़िक्र था वो आदमी!


पहले पन्ने का हमेसा ज़िक्र था वो आदमी
आखरी अंजाम से बे-फिक्र था वो आदमी
न बहुत, थोड़ा मगर मगरूर था वो आदमी
इल्म के बाबद हुआ मजबूर था वो आदमी
उनकी आंखों का रौशन नूर था वो आदमी
सामने होकर भी कितना दूर था वो आदमी
कहने वाले कह गए, बेजोर था वो आदमी
खोखले चट्टान सा कमजोर था वो आदमी
आज शरहद पे खड़ा पछता रहा है, देख लो
चार काँधों पर टीका लो जा रहा है आदमी

Tuesday, April 22, 2008

देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम्




न मन्त्रं नो यन्त्रं तदापि च न जाने स्तुतिमहो
न चाह्वानं ध्यानं तदापि च न जाने स्तुतिकथाः ।
न जाने मुद्रास्ते तदापि च न जाने विलपनं
परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम् ॥ १ ॥

विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया
विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत् ।
तदेतत्क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥ २ ॥

पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः
परं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः ।
मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे
कुपुत्रो जायते क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥ ३॥

जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता
न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया ।
तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥ ४ ॥

परित्यक्ता देवा विविधविधसेवाकुलतया
मया पञ्चाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि ।
इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता
निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम् ॥ ५ ॥

श्र्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा
निरातङ्को रङ्को विहरति चिरं कोटिकनकैः ।
तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं
जनःको जानीते जनानि जपनीयं जपविधौ ॥ ६ ॥

चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो
जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपतिः ।
कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं
भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम् ॥ ७ ॥

न मोक्षस्याकाङ्क्षा भवविभववाञ्छापि च न मे
न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः ।
अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै
मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपतः ॥ ८ ॥

नाराधितासि विधिना विविधोपचारैः
किं रुक्षचिन्तनपरैर्न कृतं वचोभिः ।
श्यामे त्वव यदि किञ्चन मय्यनाथे
धत्से कृपामुचितमम्ब परं तवैव ॥ ९ ॥

आपत्सु मग्नः स्मरणं त्वदीयं करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि ।
नैतच्छठत्वं मम भावयेथाः क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरन्ति ॥ १० ॥

जगदम्ब विचित्रमत्र किं परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि ।
अपराधपरम्परावृत्तं न हि माता समुपेक्षते सुतम् ॥ ११ ॥

मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि ।
एवं ज्ञात्वा महादेवि यथा योग्यं तथा कुरु ॥ १२ ॥


॥ इति श्रीशंकराचार्यविरचितं देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥